बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

1947 में देश भर में मलेरिया से मरे थे आठ लाख लोग

महेश शिवा
भारत पर कई सदियों तक राज करने वाले अंग्रेजी शासन से भले ही वर्ष 1947 में देशवासियों ने निजात पा ली हो, लेकिन मलेरिया के खिलाफ लड़ी जा रही जंग में हम अवही भी बहुत पीछे हैं। 1947 में एक ओर जहां देशवासी आजादी का जश्न मना रहे थे, वहीं 8 लाख लोग ऐसे भी थे, जो मलेरिया का शिकार हुए थे।
देश में मलेरिया रोग का इतिहास काफी पुराना है। आजादी के 64 साल बाद मलेरिया के प्रकोप से पूरी तरह काबू नहीं पाया जा सका। हर साल लाखों लोग इस रोग की चपेट में रहे हैं तो प्रति वर्ष हजारों लोग इस बीमारी की चपेट में आकर मौत का शिकार हो रहे हैं। राष्टीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के जिला प्रबंधक खालिद अहमद बताते हैं कि देश का शायद ही कोई कोना ऐसा बचा हो, जिसमें मलेरिया रोग का प्रकोप नहीं है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहां मलेरिया लोगों को अपनी गिरफ्त में लेता है तो पूर्वी उत्तर प्रदेश में फाइलेरिया लोगों को जकड़ता है।
मलेरिया के इतिहास पर नजर डाले तो पता चलता है कि 1947 में आठ लाख लोगों की मौत इस रोग के कारण हुई। एक साल में इतने लोगों की मौत होने पर सरकार द्वारा मलेरिया रोधी अभियान शुरु किया गया, जिसका असर यह हुआ कि कई सालों तक देश में कोई मौत मलेरिया से नहीं हो सकी। 1976 से फिर से प्रकोप बरसना शुरु हो गया। इस साल 59 लोगों की मौत मलेरिया से हुई। 1984 में 247, 1985 में 213, 1986 में 323, 1987 में 188, 88 में 209, 89 में 268, 1990 में 353, 91 में 421, 92 में 422, 93 में 354, 94 में 1122, 95 में 1151, 96 में 1010, 97 में 879, 98 में 664, 99 में 1048 मौत हुई। वर्ष 2000 में 932, 01 में 1005, 02 में 973, 03 में 1006, 04 में 949, 05 में 963, 06 में 1707, 08 में 1055, 09 में 1144 तथा 2010 में 1023 लोगों की मौत मलेरिया के चलते हो चुकी है।

देशभर में कहर बरपा रहा मलेरिया

महेश शिवा
इन दिनों पूरा देश मलेरिया मच्छर के डंक की मार झेल रहा है। उत्तर भारत ही नहीं पूर्वोत्तर राज्यों में भी मलेरिया का जबरदस्त प्रकोप है। सर्वाधिक प्रकोप ओड़िसा(उड़ीसा) राज्य में बरस रहा है। इस राज्य में अभी तक डेढ़ लाख से अधिक लोग मलेरिया की चपेट में आ चुके हैं और 24 लोगों की मौत हो चुकी है। पड़ोसी राज्य उत्तराखंड की अपेक्षा उत्तर प्रदेश में मलेरिया ग्रस्त रोगियों की संख्या कहीं ज्यादा है। हालांकि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में मलेरिया के चलते कोई मौत नहीं हुई है। देश भर में 5 लाख 87 हजार 314 व्यक्ति मलेरिया की मार झेल रहे हैं।
राष्टÑीय वेक्टर जनित रोग नियंत्रण कार्यक्रम द्वारा हाल ही में मलेरिया को लेकर जारी की गई राज्यवार रिपोर्ट में मलेरिया के हालात बेहद गंभीर नजर आ रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार उत्तर भारत की अपेक्षा पूर्वोत्तर राज्यों में मलेरिया का कहीं ज्यादा प्रकोप नजर आ रहा है। हाल ही में जारी रिपोर्ट के मुताबिक देशभर में 171 लोगों की मौत मलेरिया के चलते हो चुकी है। सबसे कम रोगी सिक्किम में 30,पांडिचेरी में 72 एवं हिमाचल प्रदेश में 75 रोगी मिले हैं। देश में मलेरिया पीवी के 5 लाख 87 हजार 314 तथा मलेरिया पीएफ के 3 लाख 3 हजार 827 रोगी पाए गए हैं।

राज्यवार मलेरिया रोगी
राज्य मलेरिया पीवी मलेरिया पीएफ
आंध्र प्रदेश 22305 16400
अरुणाचल प्रदेश 6868 2276
आसाम 31802 23287
बिहार 1145 583
छत्तीसगढ़ 50511 33987
गोवा 642 53
गुजरात 29007 2709
हरियाणा 11288 25
हिमाचल प्रदेश 75 01
जम्मू एवं कश्मीर 352 13
झारखंड 68533 25392
कर्नाटका 14755 1598
केरला 408 46
मध्य प्रदेश 18365 3678
मनिपुर 308 175
महाराष्टÑ 56097 7815
मेघालय 16020 15361
मिजोरम 4585 510
ओड़िसा 165455 149654
पंजाब 1199 03
राजस्थान 6230 199
सिक्किम 30 07
तमिलनाडू 10884 546
त्रिपुरा 10599 10180
उत्तराखंड 396 19
उत्तर प्रदेश 17339 99
वेस्ट बंगाल 30451 3217
आइसलेंड 5260 304
चंडीगढ़ 154 01
डी एंड एन हवेली 5007 1254
दमन एंड डीयू 117 28
दिल्ली 107 --
लक्ष्यद्वीप 07 --
पांडिचेरी 72 02

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

रामायण कें पात्र: 1

रामयण की जब कहीं भी और कैसी भी व्याख्या की जाती है तब -तब केकैयी के चरित्र के नये से नये आयाम उभर कर सामने आते हैं । सामान्य दृश्टि से देखने , जानने पर केकैयी का पात्र रामायण में एक खलनायिका के पात्र सा ही नजर आता है और कमोबेष हर आम जन उसे ही श्री रामचन्द्र जी के वनवास का दोशी मानता है ,और दषरथ की मृत्यु का मूल करण भी केकैयी को जाना व माना जाता है । एक आम धारणा यह है कि केकैयी एक पद लोलुप व केवल अपने ही पुत्र भरत के हित का ध्यान रखने वाली आम औरत जैसे चरित्र वाली महिला थी जो कि अपने रूप सौन्दर्य के बल पर महाराजा दषरथ को अपने काबू में किये हुये थी और उसे राम का राजा बनना कतई भी नहीं सुहाया था सो उसने राजा दषरथ के द्वारा उसे दिये गये तीन वरदानों के षस्त्र का इस्तेमाल मौका मिलते ही राम को वन भेजने व भरत को अयोध्या का राजा बनाने के लिये कर लिया ।
इतना ही नहीं केकैयी के इस कृत्य की पृश्ठभूमि में उसकी प्रिय सेविका मंथरा का भी अहम् रोल माना जाता है । रामायण के अधिकांष जानकारों की राय यही है कि अपने मायके कैकस प्रदेष से अपने साथ लाई गई इसी दासी ने केकैयी के मन में संषय व संभ्रम पैदा कर , उसे कौषल्या के राजमाता बनने के बाद की परिस्थितियों का डर दिखा कर,महाराजा दषरथ से अपने काफी पुराने वर मांग लेने को न केवल उकसाया वरन् उसे ये भी बताया कि उसे क्या व कैसे मांगना व पाना है । एक बड़ी ही स्पश्ट धारण यह भी है कि इसी सलाह के चलते राम के राजतिलक की घोशणा होते ही केकैयी कोप भवन में चली गई व उल्लास के सारे माहौल को ग़म व त्रासदी में बदल दिया और अंततः न केवल राम को वन भिजवा दिया अपितु अपने पति की मौत का कारण भी बनीं । आज भी हिन्दू घरों में कलह का कारण बनने वली औरतों को तानाकषी में केकैयी व चुगलखोरी करने व भड़काने वली औरतों को मुथरा के नाम से बुलाकर अपमानित किया जाता है । वैसे एक नजर में देखने पर यें दोनों ही पात्र एक प्रकार से से विघ्न की जड़ लगते भी हैं अन्यथा तो श्रीराम आसानी से अवध के राजा बन जाते और न तो उन्हे वन वन भटकना पड़ता और न ही सीता को रावण के हाथाेिं अपहरएा की पीड़ भुगत अंततः वनवास का त्रासदभरा जीवन जीन होता और न ही उन्हे पृथ्वी में समाना पड़ता यानि कि अगर केकैयी व मंथरा अपना खेल नहीं खलती तो सब कुछ षुभ ही षुभ होता । पर , जरा सोचिाए यदि ऐसा ही होता तो क्या रामायण जैसेक ग्रंथ के प्रणयन की जरुरत भी पड़ती अथवा क्या तब रीाम मर्यादा पुरुशोत्तम राम बन पाते ? अथवा यदि ऐसा हो गया होता तो क्या राम एक साधारण्र से राजा के रूप में षासन करके एक आम राजा ही न रह गए होते । तब भरत के भातृत्व प्रेम और सीता की पति परायणता का साक्षी कौन हुआ होता ? तब लक्ष्मण की भातृभक्ति कैसे दिखती ? यदि राम वन नहीं गये होते तो वन में रावण के हाथों निरंतर प्रताडि़त होते ऋशि मुनियों का उद्धार कैसे हुआ होता ? यदि राम -रावण का युद्ध ही न हुआ होता तो तो त्रेता में स्थापित हुआ ‘‘सत्य की असत्य पर जीत’’ का एक सार्वकालिक मिथ भला किस तरह से अस्तित्व में आता ?यानि एक जरा सी गहन दृश्टि मिलने पर ही केकैयी को सकारात्मक रूप से देखने पर इन सब चीजों का श्रेय दिया जा सकता है एक प्र्रकार से उसे व मंथरा को बावुजूद सारी खामियों के , सारे फिसाद की जड़ होने बाद भी रामायण का ऐसा आधारबिंदु माना जा सकता हैं जिनके बिना रामायण की कल्पना भी षायद ही की जा सके ।
वैसे केकैयी या मंथरा को सोरे दोशों की जड़ मानना भी षायद समीवीन न हो क्योंकि राम को वन भेंजने व रावण् तथा दूसरे राक्षसों के नाष की पूर्व योजना तो देव गण पहले बना चुके थे ।मंथरा केकैयी को तों महज एक माध्यम ही बनाया गया । कहा जाता है कि मंथर की जिह्वा साक्षात सरस्वती का वास कराया गया , केकैयी के मन मस्तिश्क को भी पूरी तरह से देवों ने बदला तब कहीं जाकर उने राम के वनवास के वरदान मांगे । यह भी एक तथ्य है कि केकैयी रा को किसी भी तरह से अपने बेटे भरत से कम नहं चाहती थी बल्कि राम तों उन्हे स्वयं व भारत से भी कहीं ज्यादा प्रिय थे । पर पूवै जन्म के पापों का प्रायष्चित न करने के कारण उन्हे यह अपयष झेलना पड़ा । राम से उनके प्यार को इसी बात से ही जाना जा सकता है कि भरत के ननिहाल से वापस आते ही स्वयं केकैयी ने ही उन्हे अपनी भूल को ठीक करने कें लिये उन्हे राम को वापस लाने के लिये न केवल भेजा वरन् वह स्वयं भी उनके साथ गई । स्वयं राम ने भी जब देखा कि केकैयी उनके वनवास का सारा दोश स्वयं पर ही ले रही है तो उन्होने स्वयं भी इसे विधना का रचा हुआ खेल बताकर केकैयी को दुखी न होने को कहा ।
कैकेयी एक बहुत ही बहादुर व पति परायण स्त्री थी तभी तो देवासुर संग्राम में वें राजा दषरथ के साथ जान हथेली पर रखकर गई थीं और संकट के समय दषरथ के रथ के पहिए में धुरी की जगह में अपनी उंगली लगाकर उनकी जान बचाने में वह सफल हुई थीं । उन्हे एक कुषल राजनीति की ज्ञाता होने के नाते दषरथ अन्य रानियों से ज्यादा प्यार करते थे । वें एक अप्रितम सुंदरी भी थी वें अत्यंत बुद्धिमान व चतुर मानी जाती थी और अयोध्या में उन्हे बहुत ही सम्मान की नज़र से देखा जाता था । बेषक यदि वें राम को वन भेजने जैसे कृत्य में लिप्त न हुई होती तो इतिहास उन्हे एक नायिका के रूप ही याद करता ।
घनष्याम बादल
रुड़की फोन 9412903681

अमावस को पूनम करने का पर्व !


प्रकाषपर्व पर विषेश:
घनष्याम ‘बादल’

कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाने वाला पर्व दीपावली ‘‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’’ के चिंतन बढ़ाने को आगे बढ़ाने वाला पर्व है । जीवन में सबके साथ हिलमिल कर रहने , सबको उजास बांटने , सबके साथ मिलकर जलने , प्रकाषित होने और सबको सुख का प्रकाष बांटने की भावना को पुश्ट करता है असंख्य दीये जलाने यह पर्व । ये ही वह दिन होता है जब उत्तर से दक्षिण और पूरब से पष्चिम तक सब हिंदू अपने घरों,दुकानो ,आंगनों और आवासीय तथा व्यापारिक परिसरों कों प्रकाष से सराबोर कर काली अमावस को भी सबसे ज्यादा प्रकाषवान बनाने का अद्भुत चमत्कार कर अंधकार पर प्रकाष की जीत का परचम लहराते हैं । जीवन में सबके साथ हिलमिल कर रहने और सबको सुख का प्रकाष बांटने की भावना को पुश्ट करता है असंख्य दीये जलाने यह पर्व । इस पर्व की एक खास बात यह भी है कि यह व्यक्ति के साथ साथ पूरे समाज की खुषहाली की पैरवी करने वाला पर्व है । यह इस बात को भी इंगित करता है कि व्यक्ति समाज के लिये है और समाज व्यक्ति के लिये । एक दूसरे के बिना दोनों ही अपूर्ण और अधूरे हैं ।
दीपावली हर तरह से सामंजस्य की पैरवी करता हुआ पर्व है । ये पर्व अकेलेपन की नहीं वरन् मिलजुलकर रहने और सहअस्तित्व को प्रधानता देने का संदेष लिये आता है । दीवाली भारत में केवल धन सम्पदा पाने के लिये ही नहीं मनाई जाती वरन् इसके मनाने के पीछे और भी कई कारण छिपे हुये हैं अनेकों मान्यताओं के चलते किसी न किसी कारण से दीवाली मनाई जा रही है ।
इस दिन हर हिंदू अपनी सामथ्र्य के अनुसार अपने घर और व्यापारिक तथा आवासीय परिसर को रोषन करने का भरपूर प्रयास करता है और यथाषक्ति लक्ष्मी को प्रसन्न्न करने का प्रयास भी करता है । इस दिन के बारे में यह एक आम धारणा है कि जो व्यक्ति आज के दिन कुछ धन या सम्पन्नता सूचक वस्तु प्राप्त कर लेता है उसे वर्शपर्यंत ही षुभ लाभ प्राप्त होता रहता है ।
मिथकीय दृश्टि से भगवान ने महादानी, पर अहंकारी हो चले महाराजा बलि के अहंकार को चूर - चूर करने के लिये आज के ही दिन उनके राज्य में पंहुचकर वामन रूप में उनसे केवल तीन गज जमीन लेने के बहाने से न केवल उनका सारा राज्य ही ले लिया था अपितु उन्हे भी बड़ी चतुराई से पृथ्वी लोक से सीधे पाताल लोक भेज कर पृथ्वी की राक्षसों से रक्षा की थी । मर्यादा पुरुशोत्तम श्री राम के रावण को मारकर और सीता को वापस जीतकर अयोध्या लौटने की खुषी में दीवाली मनाते हैं तो कुछ इस विष्वास के साथ दीवाली मनाते हैं कि इस दिन धन की देवी लक्ष्मी पृथ्वी पर भ्रमण करने निकलती है । साहित्यकार महादेवी वर्मा का जन्मदिन भी दीवाली को मनाते हैं रचनाधर्मिता में विष्वास रखने वाले सृजनहार ।
दर्षन व आध्यात्म के विद्वान मानते हैं कि दीवाली अन्नमयकोष से प्राणमयकोष की तरफ प्रस्थान करवाती है। जिससे मानव मुक्ति की तरफ कदम बढा़ता है , और दैवीय ऊर्जा प्राप्त करने की तरफ कदम बढ़ाता है ।
जबकि विज्ञान की नजर में बरसात के बाद वायुमण्डल में आये अनेकों कीट पतंगों को नश्ट करने के लिये वातावरण में पर्याप्त मात्रा में अग्नि ,उश्मा व रोषनी का होना आवष्यक होता है और दीवली का पर्व ष्ये सब लेकर आता है यानि दीवाली वैज्ञानिक दृश्टि से भी एक बहुउपयोगी पर्व है जोंवातावरण से नमीं को दूर करके उसे षुद्ध करता है , हालांकि अब जिस तरह से और जितनी ज्यादा आतिषबाजी होती है उसके चलते भयंकर प्रदूशण भी हो रहा है जिससे इस पर्व का आनंद कम हो रहा है और बीमारों व पर्यावरण के प्रति जागरुक लोगों को तक़लीफ़ हो रही है जो जायज भी हैे ।
सामान्य जन के लिये जहां दीपावली रोषनी करने , खाने - खिलाने , मिलने - मिलाने ,साफ सफाई करने ,घरों को सजाने संवारने ,का पर्व है वहीं सुधि जनों और विद्वानों के लिये दीपावली के मायने कहीं ज्यादा गहरे होते हैं । विद्वानों और ज्ञानीजनों के लिये दीपावली अज्ञान रूपी अंधकार को नश्ट कर आत्मा को ज्ञान रूपी प्रकाष से जगमगाने का पर्व होता है , वें इस पर्व से वर्श भर में किये या हो गये अषुद्ध कृत्यों से मुक्ति पाने की राह देखते रहते हैं । कर्मकांडों में यकीन रखने वाले व तां़िक दीवली को आधी रात के समय अपनी मनोकामना पूरी करने के लिये विभिन्न अनुश्ठान करते हैं तो धनी लोग इस दिन अपने धन की वृद्वि की कामना से लक्ष्मी पूजन करते हैं तो निर्धनजन अपनी आराधना और पूजा के माध्यम से लक्ष्मी को अपने घर आने की मनुहार कर अपने भविश्य को संवारने की कामना करते हैं ।
जीवन में प्रकाष एक अलग ही महत्व रखता है जो जीवन को को हर खुषी से आलोकित कर देता है और बेषक दीवाली जीवन में सत् का ही प्रकाष लेकर आता है।

घनष्याम ‘बादल’
गोविंदनगर, रुड़की