गुरुवार, 28 जुलाई 2011

राशि के अनुसार करें शिव पूजा, पूर्ण होगी हर मनोकामना


धर्म ग्रंथों के अनुसार सावन मास में की गई शिव पूजा से भगवान शिव अति प्रसन्न होते हैं इसलिए सभी लोग सावन में अलग-अलग तरीकों से शिव उपासना कर भगवान शिव की कृपा पाने की इच्छा रखते हैं। ज्योतिष के अनुसार सावन में राशि के अनुसार शिव पूजा करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। राशि के अनुसार शिवजी की पूजा इस प्रकार करें-



मेष- गुड़ के जल से अभिषेक करें । मीठी रोटी का भोग चढ़ाएं। लाल चंदन व कनेर की फूल से पूजा करें।



फल- भूमि, भवन आदि अचल संपत्ति प्राप्त होगी।



वृष- दही से अभिषेक करें। शक्कर, चावल, सफेद चंदन व सफेद फूल से पूजा करें ।



फल- परिवार में सुख-शांति आएगी।



मिथुन- गन्ने के रस से भगवान का अभिषेक करें। मूंग, दूब और कुशा से पूजा करें।



फल- धन लाभ होगा।



कर्क- घी से अभिषेक कर चावल, कच्चा दूध, सफेद आक व शंखपुष्पी से शिवलिंग की पूजा करें।



फल- व्यक्तित्व विकास होगा। चिंता का नाश होगा।



सिंह- गुड़ के जल से अभिषेक कर गुड़ व चावल से बनी खीर का भोग लगाएं। मंदार के फूल से पूजा करें। फल- आत्मसुख मिलेगा। बिगड़े काम बन जाएंगे।



कन्या- गन्ने के रस से शिवलिंग का अभिषेक करें। भगवान शंकर को भांग, दूब व पान अर्पित करें।

फल- रोजगार के अवसर मिलेंगे।



तुला- सुगंधित तेल या इत्र से भगवान का अभिषेक कर दही, शहद व श्रीखंड का भोग लगाएं। सफेद फूल से शिवजी की पूजा करें।

फल- कार्य में आ रही बाधाएं दूर होंगी।



वृश्चिक- पंचामृत से अभिषेक करें। मावे की मिठाई का भोग लगाएं। लाल फूल से भगवान की पूजा करें।

फल- धन लाभ होगा।



धनु- हल्दी युक्त दूध से अभिषेक कर बेसन की मिठाई का भोग लगाएं। पीले फूल से शिवजी की पूजा करें।

फल- रोगों से मुक्ति मिलेगी।



मकर- नारियल पानी से अभिषेक कर उड़द से बनी मिठाई का भोग लगाएं। गेंदे के फूल चढ़ाएं।

फल- विवाह के लिए रिश्ते आएंगे।



कुंभ- तिल के तेल से अभिषेक कर मिठाई का भोग लगाएं । शमी के फूल से शिवजी की पूजा करें।

फल- प्रतियोगी परीक्षा में सफलता मिलेगी।



मीन- केसरयुक्त दूध से शिवजी का अभिषेक कर दही-चावल का भोग लगाएं। पीली सरसों और नागकेसर से पूजा करें।

फल- परिवार में प्रेम बढ़ेगा।

सोमवार, 25 जुलाई 2011

अरबी भी मुरीद रहे है वेद ज्ञान के

श्रीगोपाल नारसन

‘अया मुबारकल अर्जे योशेय्ंये नुहामिनल! हिन्दे फाराद कल्लाहों मैय्योनज्जेे ला जिक्रतुन। वहल तजल्लेयतुन एनाने सहनी अरबातुन! हाजही युनज्जेल रसूलों ज़िक्रतान मिलन हिन्दतुन।’ अरबी भाषा में लिखी एक कविता की उपरोक्त पक्ंितयों में अरब के कवि लावी ने हजरत मुहम्मद साहब के जन्म से 2400 साल पहले ही लिख दिया था कि हे हिन्दुस्तान की भूमि तू आदर करने लायक है क्योकि तुझमें ही अल्लाह ने अपने सत्य ज्ञान को रोशन किया है।
‘वेद महिमा’ शीर्षक से लिखी गई यह कविता ‘सीरूल उकूल’ नामक पुस्तक में पं्रकाशित है, जिसे धरोहर कविता के रूप् में अस्माई मलेकुम ने संकलित किया है। अरबी भाषा की इस पांच दोहों में सम्माहित कविता में चारों वेदों को ईश्वरीय ज्ञान रूप् का ध्योतक बताते हुए कहा गया है कि ये वेद हमारे मानसिक नेत्रों को शीतल ऊषा व अद्वितीय आकर्षण की ज्योति प्रदान करते है।
प्रखर विद्वान ओमप्रकाश वर्मा जिन्होंने चारो वेेदों का भाषय तैयार करने में 16 वर्षो तक वेद साधना की, द्वारा अनुवादित अरबी कविता के सार में कहा गया कि परमेश्वर ने हिन्दुस्तान में अपने पैगम्बरों के दिलों में चारों वेदों का प्रकाश किया। ताकि पृथ्वी पर रहने वाले सभी लोगों को ईश्वर उपदेश के रूप् में वेद का ज्ञान सदैव मिलता रहे और यह ज्ञान आम जीवन में क्रियान्वित होकर सदाचरण का आधार बने।
अरब के ही एक अन्य कवि जिरहम विन्तोई ने भी अपनी ‘सेरूअल ओकुल’ कृति में नसीहत दी कि हम लोग अल्लाह को भूल गये थे, सब विषय वासनाओं में फंसे थे। अज्ञान के अंधकार ने पूरे देश को घेर रखा था। ऐेसे प्रतिकूल समय में सम्राट विक्रमाद्वितीय ने हम पर कृपा की और धर्म का पवित्र सन्देश जन-जन तक फैलाया जिससे अरब अमीरात में हिन्दुस्तान से आए तेजस्वी विद्वानों की बदौलत ज्ञान की चमक पैदा हुई। जिससे स्पष्ट है कि भारत सदियों से दुनियाभर के देशों को ज्ञान की सीख देता रहा है। तभी तो भारतीय संस्कृति, कला, धर्म, मन्दिर, उत्सव, रहन-सहन, खान-पान और अभिव्यक्ति की झलक कही न कही दुनियाभर के देशों में देखने व जानने को मिलती है।
वेद एवं हिन्दी साहित्य पर गहरी पकड़ रखने वाले डा0 महेन्द्र पाल काम्बोज तो खुले रूप् में कहते है कि वस्तुतः हिन्दुस्तान सदैव से संसार भर को सन्मार्ग दिखाता आया है। इसी कारण प्रायः हर देश में कही न कही भारतीयता व यहां की धरोहर की छाय सहज रूप् में देखने को मिलती है। भारत की रामलीला और दशहरा-दीपावली जैसे पर्वो की झलक मैक्सिकों, मारीशस, इन्डोनेशियां, पेरू, थाईलैण्ड़ जैसे देशों में देखा जाना आम बात है। जिस तरह से जर्मनी में वेद को विकास की आधार शिला माना जाता है उसी तरह यूरोप, इरान, इराक व यूनान देशों में भी भारतीयता की झलक किसी न किसी रूप् में परिलक्षित होती है।
दुनियाभर में कई ऐसे देश है जहां भारत की तरह ही रीति रिवाज, धर्म-कर्म, पूजा-पाठ, संस्कार देखने को मिलते है। दक्षिण अमेरिका में नागवंशी शिल्पियों की आबादी सिद्ध करती है कि भारत पूरे दुनिया में सदियों से पांव पसारे हुए है और राजनीतिक रूप् में न सही वेद ज्ञान व धर्म-संस्कृति रूप् में संसार को भारत राह दिखाता रहा है। आज भी शायद ही ऐसा कोई देश हो जहां भारत की प्रतिभाएं अपने ज्ञान का लोहा न मनवा रही हो।

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

आंखों से आंसू निकलवा रही प्याज





मौसम में नमी के कारण प्याज में लगा रोग

क्या उपोक्ताओं को फिर रूलाएंगे प्याज के ाव...? मौसम में नमी के कारण प्याज में सुर्रा रोग लग गया है, जिससे प्याज गलना शुरु हो गई है। रही सही कसर मौसम की नमी ने पूरी कर दी। प्याज की पैदावार कम रहने से जहां प्याज किसानों को ारी हानी हुई है, वहीं प्याज व्यापारी ी इस बार आंसु बहाने को मजबूर है।
आम तौर पर फरवरी में प्याज की पौध तैयार कर ली जाती है और मार्च में क्यारियों मे इसकी रोपाई कर दी जाती है। अप्रैल, मई मंे फसल तैयार हो जाती है। पिछले तीन वर्षों मंे प्याज की पैदावार व रेट सामान्य रही, जिस कारण प्याज किसानों व व्यापारियों को मुनाफा हुआ। वर्ष 2005-06 में प्याज हाईटेंशन मूल्य पर बाजार में बिकवाली हुई। इस बार ी उत्पादन की को देखते हुए लगता है प्याज एक बार उपोक्ताओं के फिर आंसू बहाने पर मजबूर कर देगा।
फसल तैयार होने पर अपै्रल, मई मंे जब प्याज की खुदाई प्रारंभ कर दी जाती है। मौसम खुस्क रहता है जिससे फसल अच्छी रहती है। किन्तु इसके विपरीत इस बार प्याज खुदाई के समय ही शुरू हुई वर्षा ने प्याज की फसल पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। बेमौसमी बरसात के कारण फसल में सुर्रा रोग फैल गया। जिससे पैदावार घटकर 50 प्रतिशत रह गई। मौसम की मार से व्यापारी ी नहीं बच पाये। व्यापारियों द्वारा टाट्टे में लगाई गई प्याज ी गलने लगी। व्यापारी रमेशचंद का कहना है कि प्याज के गलने का कारण लू न चलना है। इस बार मौसम में नमी का वातावरण रहा, जिससे प्याज सूख नहीं पाई। एक अनुमान के अनुसार पिछले वर्ष की अपेक्षा इस बार 25 प्रतिशत फसल ही बाजार में पहुंच पाएगी।
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दस रुपये किलो बिका था प्याज
गंगोह। जुलाई, अगस्त 2008 में फुटकर मे प्याज के ाव 7 से 10 रूपये तक बिका था। 2009-10 में ी ाव सामान्य तौर पर 8 से 12 रूपये तक ही सीमित रहा। जबकि इस बार बाजार ाव 15 से 20 रूपये तक जुलाई माह में ही जा पहंुचा है। फसल रोग ग्रस्त होने व व्यापारियों द्वारा संग्रहीत प्याज के गल जाने से बाजार में इस बार पिछले वर्षों की उपेक्षा प्याज की उपलब्धी बहुत कम नजर आ रही है। बाजार के व्यापारी पिंकी, नसीम, राजू, देशबंधु, मौ. इशा, सुक्कड, एसीलाल आदि का अनुमान है कि सीजन के अंत मे प्याज के ाव 2006 के 30 से 50 रू. के आंकडे को छू सकते है। नमी व सर्रा रोग के कारण घटी प्याज की मात्रा व उंचे ाव उपोक्ताओं को एक बार फिर आंसु बहाने पर मजबूर कर सकते है।
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महेश शिवा

रविवार, 17 जुलाई 2011

अमृत है उत्तराखण्ड़ की चाय




श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट

एक जमाने में उत्तराखण्ड़ के कुमाऊ जंगलों में चाय के पौधे खरपतवार की तरह लावारिस रूप् में उग आते थें। जगंली घास समझकर इन चाय के पौधों का कोई उपयोग भी नहीं करता था। लेकिन जब सन् 1823 में आसाम की धरती पर चाय की जंगली पौधों की खोज होने के बाद बिशप हेलर नामक सैलानी सन् 1824 में हिमालय क्षेत्र की यात्रा पर उत्तराखण्ड़ क्षेत्र में आया और उन्होने कुमाऊ के जगंलों में खडे़ लावारिस चाय के पौधों को देखा तो उन्होने यहां चाय की खेती संभावना व्यक्त की। उन्होने उत्तराखण्ड़ के भौगोलिक स्वरूप् व जलवायु को चाय की खेती के अनुकूल मानते हुए लोगों को उत्तराखण्ड में चाय की खेती की सलाह दी।
उत्तराखण्ड़ के चिंतक रमित जोशी की माने तो सैलानी बिशप हेलर द्वारा चाय की खेती की बाबत दिए गए सुझाव को कार्य रूप् में लाने के लिए सहारनपुर के तत्कालीन सरकारी बोटेनिकल गार्डन चीफ डाक्टर रायले ने तत्कालीन गर्वनर जनरल विलियम बेंिटंग से उत्तराखण्ड़ पर्वतीय क्षेत्र में चाय का उद्योग विकसित करने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास करने का अनुरोध किया। जिस पर सन् 1834 में चाय उद्योग के लिए एक कमेटी का गठन किया गया और सन् 1835 में इस कमेटी के माध्यम से चाय की दो हजार पौध कोलकाता से उत्तराखण्ड़ के लिए मंगायी गई। जिसे कुमाउ क्षेंत्र के अलमोड़ा में भरतपुर ले जाकर रोपित किया गया। यही चाय की नर्सरी बनाकर चाय कि खेती का विस्तार कुमाउ के साथ-साथ गढ़वाल क्षेत्र में भी किया गया।
अनुकूल जलवायु एवं चाय की उन्नत खेती तकनीक के चलते उत्तराखण्ड़ में जो चाय पैदा हुई वह गुणवता की दृष्टि से लाजवाब थी तभी तो सन् 1842 में चाय विशेषज्ञ द्वारा उत्तराखण्ड की चाय को आसाम की चाय से श्रेंष्ठ घोषित किया गया। इंग्लैण्ड में भेेजे गये उत्तराखण्ड़ की चाय के नमूनों को भी गुणवत्ता की दृष्टि से दुनिया भर की चाय से श्रेष्ठतम माना गया। जिससे उत्साहित होकर सरकारी प्रोत्साहन के बलबूते उत्तराखण्ड़ की धरती पर सन् 1880 तक चाय की खेती का विस्तार 10937 एकड़ क्षेत्रफल तक पहुंच गया और चाय के 63 बागानों के रूप् के रूप् में चाय की उन्नत खेती की गई।
भले ही चाय उत्पादन के क्षेत्र में उत्तराखण्ड़ दार्जलिंग और असम की तरह चर्चित न हो लेकिन उत्तराखण्ड़ की आर्थोडाक चाय आज भी दुनिया की सबसे महंगी चाय में शुमार है। अमेरिका, नीदरलैण्ड़ और कोरिया समेत दुनिया भर के कई देशों में उत्तराखण्ड की चाय को लोग हाथों-हाथ लेते है। 1200 मीटर से 2000 मीटर की उंचाई पर उगाई जाने वाली आर्थोडाक चाय जिसे जैविक चाय भी कहा जाता है को चाय के पौधों पर आने वाली पहली दो कोमल पत्तियों को कली के साथ तोडकर एक दिन के प्रोसिस से तैयार किया जाता है। अल्मोडा के दिवान नगरकोटी ने बताया कि उत्तराखण्ड की चाय की सर्वाधिक किमत विदेशों में मिलती है। उन्होने जानकारी दी कि आर्थोडाक चाय का आयात लगभग दस हजार प्रति किलोग्राम की दर से किया जा रहा है। एक वर्ष में आर्थोडाक चाय की पैदावार करीब डेढ़ लाख किलोग्राम होने का अनुमान है।
उत्तराखण्ड चाय बोर्ड के निदेशक डी एस गर्ब्याल ने भी स्वीकारा की उत्तराखण्ड की आर्थोडाक चाय का दुनिया भर में कोई मुकाबला नहीं है। लेकिन उत्तराखण्ड में चाय का बाजार विकसित न होने, यातायात संसाधनों की कमी और चाय के बाजारीकरण के लिए कोलकत्ता बदंरगाह पर ही निर्भर रहने के कारण उत्तराखण्ड की चाय अन्तर्राष्टीय बाजार में अभी पूरी तरह अपनी जगह नहीं बना पायी। जिसका एक बडा कारण उत्तराखण्ड में चाय के किसानों को चाय की खेती के प्रति र्प्याप्त प्रोत्साहन की कमी माना जा सकता है। शायद यही कारण है कि कभी उत्तराखण्ड की रौनक माने जाने वाले चाय के 63 बागानों मे ंसे अब मात्र गिनती की बागान ही रह गये है और वह भी भारी कीमत की आर्थोडाक चाय तक सिमट जाना चिंता का विषय है। हालाकि आज भी कुमाउ क्षेत्र के रानीखेत, भीमताल, दूनागिरी, कौशानी, भवाली व बेरीनाग के जंगलों में चाय के पौधे खरपतवार के रूप् में खडे देखे जा सकते है। इस लिए यदि चाय की आधुनिक खेती के लिए उत्तराखण्ड के चाय किसानों को पुनः प्रात्साहित किया जाये और उन्हे यह विश्वास दिलाया जाये कि चाय लाभकारी फसल है तो किसानों का रूख चाय की ओर हो सकता है। जो उनकी जिंदगी बदल सकती है।

शनिवार, 16 जुलाई 2011

सावन के मेघ

जाने कहाँ से ये हैं आते, हृदय को मेरे रौंद मुस्काते
क्षितिज पार ओझल हो जाते, ये सावन के मेघ

जग में उजियारा होने पर भी, मेरे दुख के तम की भांति
श्याम दिनों दिन होते जाते, ये सावन के मेघ

कोई इन से भी बिछड़ गया है, बरस-बरस कर विरह जताते
जल नहीं आँसू बरसाते, ये सावन के मेघ

संदेश प्रेम का जग को दे कर, सबके दिलों का मेल कराते
मन मसोस पर खुद रह जाते, ये सावन के मेघ

सुंदर बदली जो मिली गत वर्ष, नयन उसी को ढूंढे जाते
जीवन उसी को खोज बिताते, ये सावन के मेघ

पा जांए उस प्रियतमा बदली को, यही सोच कर ये हैं छाते
किंतु नहीं निशानी कोई पाते, ये सावन के मेघ

चपला देती भंयकर पीड़ा, उड़ा ले जाती घोर समीरा
लौट वहीं पर फिर से आते, ये सावन के मेघ


सावन माह की विशेषता

भारत के सभी शिवालयों में श्रावण सोमवार पर हर-हर महादेव और बोल बम बोल की गूँज सुनाई देगी। श्रावण मास में शिव-पार्वत‍ी का पूजन बहुत फलदायी होता है। इसलिए सावन मास का बहुत मह‍त्व है।

क्यों है सावन की विशेषता? :- हिन्दू धर्म की पौराणिक मान्यता के अनुसार सावन महीने को देवों के देव महादेव भगवान शंकर का महीना माना जाता है। इस संबंध में पौराणिक कथा है कि जब सनत कुमारों ने महादेव से उन्हें सावन महीना प्रिय होने का कारण पूछा तो महादेव भगवान शिव ने बताया कि जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से शरीर त्याग किया था, उससे पहले देवी सती ने महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था।

अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमाचल और रानी मैना के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया। पार्वती ने युवावस्था के सावन महीने में निराहार रह कर कठोर व्रत किया और उन्हें प्रसन्न कर विवाह किया, जिसके बाद ही महादेव के लिए यह विशेष हो गया।

सावन में शिवशंकर की पूजा :- सावन के महीने में भगवान शंकर की विशेष रूप से पूजा की जाती है। इस दौरान पूजन की शुरूआत महादेव के अभिषेक के साथ की जाती है। अभिषेक में महादेव को जल, दूध, दही, घी, शक्कर, शहद, गंगाजल, गन्ना रस आदि से स्नान कराया जाता है। अभिषेक के बाद बेलपत्र, समीपत्र, दूब, कुशा, कमल, नीलकमल, ऑक मदार, जंवाफूल कनेर, राई फूल आदि से शिवजी को प्रसन्न किया जाता है। इसके साथ की भोग के रूप में धतूरा, भाँग और श्रीफल महादेव को चढ़ाया जाता है।

महादेव का अभिषेक :- महादेव का अभिषेक करने के पीछे एक पौराणिक कथा का उल्लेख है कि समुद्र मंथन के समय हलाहल विष निकलने के बाद जब महादेव इस विष का पान करते हैं तो वह मूर्च्छित हो जाते हैं। उनकी दशा देखकर सभी देवी-देवता भयभीत हो जाते हैं और उन्हें होश में लाने के लिए निकट में जो चीजें उपलब्ध होती हैं, उनसे महादेव को स्नान कराने लगते हैं। इसके बाद से ही जल से लेकर तमाम उन चीजों से महादेव का अभिषेक किया जाता है।

ND
बेलपत्र और समीपत्र :- भगवान शिव को भक्त प्रसन्न करने के लिए बेलपत्र और समीपत्र चढ़ाते हैं। इस संबंध में एक पौराणिक कथा के अनुसार जब 89 हजार ऋषियों ने महादेव को प्रसन्न करने की विधि परम पिता ब्रह्मा से पूछी तो ब्रह्मदेव ने बताया कि महादेव सौ कमल चढ़ाने से जितने प्रसन्न होते हैं, उतना ही एक नीलकमल चढ़ाने पर होते हैं। ऐसे ही एक हजार नीलकमल के बराबर एक बेलपत्र और एक हजार बेलपत्र चढ़ाने के फल के बराबर एक समीपत्र का महत्व होता है।

बेलपत्र ने दिलाया वरदान : बेलपत्र महादेव को प्रसन्न करने का सुलभ माध्यम है। बेलपत्र के महत्व में एक पौराणिक कथा के अनुसार एक भील डाकू परिवार का पालन-पोषण करने के लिए लोगों को लूटा करता था। सावन महीने में एक दिन डाकू जंगल में राहगीरों को लूटने के इरादे से गया। एक पूरा दिन-रात बीत जाने के बाद भी कोई शिकार नहीं मिलने से डाकू काफी परेशान हो गया।

इस दौरान डाकू जिस पेड़ पर छुपकर बैठा था, वह बेल का पेड़ था और परेशान डाकू पेड़ से पत्तों को तोड़कर नीचे फेंक रहा था। डाकू के सामने अचानक महादेव प्रकट हुए और वरदान माँगने को कहा। अचानक हुई शिव कृपा जानने पर डाकू को पता चला कि जहाँ वह बेलपत्र फेंक रहा था उसके नीचे शिवलिंग स्थापित है। इसके बाद से बेलपत्र का महत्व और बढ़ गया।

विशेष सजावट : सावन मास में शिव मंदिरों में विशेष सजावट की जाती है। शिवभक्त अनेक धार्मिक नियमों का पालन करते हैं। साथ ही महादेव को प्रसन्न करने के लिए किसी ने नंगे पाँव चलने की ठानी, तो कोई पूरे सावन भर अपने केश नहीं कटाएगा। वहीं कितनों ने माँस और मदिरा का त्याग कर दिया है।

काँवरिए चले शिव के धाम : सावन का महीना शिवभक्तों के लिए खास होता है। शिवभक्त काँवरियों में जल लेकर शिवधाम की ओर निकल पड़ते हैं। शिवालयों में जल चढ़ाने के लिए लोग बोल बम के नारे लगाते घरों से निकलते हैं। भक्त भगवा वस्त्र धारण कर शिवालयों की ओर कूच करते हैं।

विश्व के कल्याण की कामना है कांवड़ यात्रा में



रमेश चंद
हिंदू कैलिंडर का पांचवां महीना सावन मुख्य रूप से तप और ध्यान पर केंद्रित है। सूर्य के उत्तरायण में होने पर यज्ञ, अनुष्ठान और देवपूजा करने का विधान है, तो दक्षियाणन में तप एवं साधना पर जोर दिया गया है। सावन में शिवभक्त हलाहल पान करने वाले शिव का ताप मिटाने के लिए कांवड़ से गंगा जल लाकर अपने अभीष्ट शिवधाम में जलाभिषेक करते हैं।

विषपान की घटना सावन महीने में हुई थी, तभी से यह क्रम अनवरत चलता आ रहा है। कांवड़ यात्रा को आप पदयात्रा को बढ़ावा देने के प्रतीक रूप में मान सकते हैं। पैदल यात्रा से शरीर के वायु तत्व का शमन होता है। कांवड़ यात्रा के माध्यम से व्यक्ति अपने संकल्प बल में प्रखरता लाता है। वैसे साल के सभी सोमवार शिव उपासना के माने गए हैं, लेकिन सावन में चार सोमवार, श्रावण नक्षत्र और शिव विवाह की तिथि पड़ने के कारण शिव उपासना का माहात्म्य बढ़ जाता है।

'शिव' परमात्मा के कल्याणकारी स्वरूप का नाम है। जो मार्ग नियम, व्यवहार, आचरण और विचार हमें तुच्छता से शीर्ष की ओर ले जाए, वही कल्याणकारी है। शिव लिंग को अंतर्ज्योति का प्रतीक माना गया है। यह ध्यान की अंतिम अवस्था का प्रतीक है, क्योंकि सृष्टि के संहारक शिव भय, अज्ञान, काम, क्रोध, मद और लोभ जैसी बुराइयों का भी अंत करते हैं।

शिव कर्पूर गौर अर्थात सत्वगुण के प्रतीक हैं। वे दिगंबर अर्थात माया के आवरण से पूरी तरह मुक्त हैं। उनकी जटाएं वेदों की ऋचाएं हैं। शिव त्रिनेत्रधारी हैं अर्थात भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों के ज्ञाता हैं। बाघंबर उनका आसन है और वे गज चर्म का उत्तरीय धारण करते हैं। हमारी संस्कृति में बाघ क्रूरता और संकटों का प्रतीक है, जबकि हाथी मंगलकारी माना गया है। शिव के इस स्वरूप का अर्थ यह है कि वे दूषित विचारों को दबाकर अपने भक्तों को मंगल प्रदान करते हैं।

शिव का त्रिशूल उनके भक्तों को त्रिताप से मुक्ति दिलाता है। उनके सांपों की माला धारण करने का अर्थ है कि यह संपूर्ण कालचक्र कुंडली मार कर उन्हीं के आश्रित रहता है। चिता की राख के लेपन का आशय दुनिया से वैराग्य का संदेश देना है। भगवान शिव के विष पान का अर्थ है कि वे अपनी शरण में आए हुए जनों के संपूर्ण दुखों को पी जाते हैं। शिव की सवारी नंदी यानी बैल है। यहां बैल धर्म और पुरुषार्थ का प्रतीक है।

भगवान शिव कल्याण के देव हैं और कल्याण की संस्कृति ही वास्तव में शिव की संस्कृति है। सावन का महीना, पार्वती जी का भी महीना है। शिव परमपिता परमेश्वर हैं तो मां पार्वती जगदंबा और शक्ति। सदाशिव और मां पार्वती प्रकृति के आधार हैं। चतुर्मास में जब भगवान विष्णु शयन के लिए चले जाते हैं, तब शिव रुद नहीं, वरन भोले बाबा बनकर आते हैं।

सावन में धरती पर पाताल लोक के प्राणियों का विचरण होने लगता है। वर्षायोग से राहत भी मिलती है और परेशानी भी। चतुर्मास की शुरुआत में वर्षा के कारण रास्ते आने-जाने लायक नहीं रह जाते। सावन आते-आते वर्षा की गति मंथर हो जाती है। इस काल में पैदल यात्राओं का दौर धीरे-धीरे शुरू हो जाता है।

कांवडि़यों के रूप में यह प्रार्थना सामूहिक उत्सव के रूप में देखने को मिलती है। कांवड़ यात्रा धर्म और अर्पण का प्रतीक है। सावन में काम का आवेग बढ़ता है। शंकर जी इस आवेग का शमन करते हैं। कामदेव को भस्म करने का प्रसंग भी सावन का ही है। और शिव का विवाह भी श्रावण मास की शिवरात्रि को ही संपन्न हुआ। शिव चरित में उल्लेख है कि सृष्टि चक्र की मर्यादा, परंपरा और नियमोपनियम बने रहें, इसलिए तारकासुर को मारने के लिए शिव ने विवाह किया। तभी से सावन में विवाह परंपरा का भी जन्म हुआ था। इस नाते सावन लोकोत्पत्ति का उत्सव है।

कांवडि़यों के रूप में समाज के हर वर्ग के लोग उमंग और आस्था के साथ शिव जी के इस विवाह में शामिल होने जाते हैं। कुछ वर्षों से कांवड़ यात्रा के दौरान अप्रिय घटनाएं हुई हैं और मार्ग में असामाजिक तत्व उत्पात और हंगामे की स्थिति पैदा कर देते हैं। अगर साधक भगवान शिव के समान कल्याण की कामना ले कर चलें तभी कांवड़ यात्रा का उद्देश्य सार्थक होगा।

बुधवार, 6 जुलाई 2011

— इसे सुनें


हंगामा है क्यूं बरपा.. थोडी सी जो पी ली है..
डाका तो नहीं डाला.. चोरी तो नहीं की है..
उस मे से नही मतलब.. दिल जिस से है बेगाना..
मकसुद है उस मे से.. दिल ही मे जो खिंचती है..
सूरज में लगे धब्बा.. कुदरत के करिश्में हैं..
बुत हमको कहें काफ़िर.. अल्लाह की मर्ज़ी है..
ना तजुर्बाकारी से वाईज़ की ये बातें हैं..
इस रंग को क्या जाने.. पूछो तो कभी पी है..
वा दिल में की सदमे दो.. या की मे के सब सह लो..
उनका भी अजब दिल है.. मेरा भी अजब जी है..
हर ज़र्रा चमकता है.. अनवार-ए-इलाही से..
हर सांस ये कहती है.. हम हैं तो खुदाई है..
हंगामा है क्यूं बरपा.. थोडी सी जो पी ली है..
डाका तो नहीं डाला.. चोरी तो नहीं की है..
थोडी सी जो पी ली है..
लेखक - अकबर एलाहबादी
गायक - गुलाम अली