रविवार, 17 जुलाई 2011
अमृत है उत्तराखण्ड़ की चाय
श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट
एक जमाने में उत्तराखण्ड़ के कुमाऊ जंगलों में चाय के पौधे खरपतवार की तरह लावारिस रूप् में उग आते थें। जगंली घास समझकर इन चाय के पौधों का कोई उपयोग भी नहीं करता था। लेकिन जब सन् 1823 में आसाम की धरती पर चाय की जंगली पौधों की खोज होने के बाद बिशप हेलर नामक सैलानी सन् 1824 में हिमालय क्षेत्र की यात्रा पर उत्तराखण्ड़ क्षेत्र में आया और उन्होने कुमाऊ के जगंलों में खडे़ लावारिस चाय के पौधों को देखा तो उन्होने यहां चाय की खेती संभावना व्यक्त की। उन्होने उत्तराखण्ड़ के भौगोलिक स्वरूप् व जलवायु को चाय की खेती के अनुकूल मानते हुए लोगों को उत्तराखण्ड में चाय की खेती की सलाह दी।
उत्तराखण्ड़ के चिंतक रमित जोशी की माने तो सैलानी बिशप हेलर द्वारा चाय की खेती की बाबत दिए गए सुझाव को कार्य रूप् में लाने के लिए सहारनपुर के तत्कालीन सरकारी बोटेनिकल गार्डन चीफ डाक्टर रायले ने तत्कालीन गर्वनर जनरल विलियम बेंिटंग से उत्तराखण्ड़ पर्वतीय क्षेत्र में चाय का उद्योग विकसित करने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास करने का अनुरोध किया। जिस पर सन् 1834 में चाय उद्योग के लिए एक कमेटी का गठन किया गया और सन् 1835 में इस कमेटी के माध्यम से चाय की दो हजार पौध कोलकाता से उत्तराखण्ड़ के लिए मंगायी गई। जिसे कुमाउ क्षेंत्र के अलमोड़ा में भरतपुर ले जाकर रोपित किया गया। यही चाय की नर्सरी बनाकर चाय कि खेती का विस्तार कुमाउ के साथ-साथ गढ़वाल क्षेत्र में भी किया गया।
अनुकूल जलवायु एवं चाय की उन्नत खेती तकनीक के चलते उत्तराखण्ड़ में जो चाय पैदा हुई वह गुणवता की दृष्टि से लाजवाब थी तभी तो सन् 1842 में चाय विशेषज्ञ द्वारा उत्तराखण्ड की चाय को आसाम की चाय से श्रेंष्ठ घोषित किया गया। इंग्लैण्ड में भेेजे गये उत्तराखण्ड़ की चाय के नमूनों को भी गुणवत्ता की दृष्टि से दुनिया भर की चाय से श्रेष्ठतम माना गया। जिससे उत्साहित होकर सरकारी प्रोत्साहन के बलबूते उत्तराखण्ड़ की धरती पर सन् 1880 तक चाय की खेती का विस्तार 10937 एकड़ क्षेत्रफल तक पहुंच गया और चाय के 63 बागानों के रूप् के रूप् में चाय की उन्नत खेती की गई।
भले ही चाय उत्पादन के क्षेत्र में उत्तराखण्ड़ दार्जलिंग और असम की तरह चर्चित न हो लेकिन उत्तराखण्ड़ की आर्थोडाक चाय आज भी दुनिया की सबसे महंगी चाय में शुमार है। अमेरिका, नीदरलैण्ड़ और कोरिया समेत दुनिया भर के कई देशों में उत्तराखण्ड की चाय को लोग हाथों-हाथ लेते है। 1200 मीटर से 2000 मीटर की उंचाई पर उगाई जाने वाली आर्थोडाक चाय जिसे जैविक चाय भी कहा जाता है को चाय के पौधों पर आने वाली पहली दो कोमल पत्तियों को कली के साथ तोडकर एक दिन के प्रोसिस से तैयार किया जाता है। अल्मोडा के दिवान नगरकोटी ने बताया कि उत्तराखण्ड की चाय की सर्वाधिक किमत विदेशों में मिलती है। उन्होने जानकारी दी कि आर्थोडाक चाय का आयात लगभग दस हजार प्रति किलोग्राम की दर से किया जा रहा है। एक वर्ष में आर्थोडाक चाय की पैदावार करीब डेढ़ लाख किलोग्राम होने का अनुमान है।
उत्तराखण्ड चाय बोर्ड के निदेशक डी एस गर्ब्याल ने भी स्वीकारा की उत्तराखण्ड की आर्थोडाक चाय का दुनिया भर में कोई मुकाबला नहीं है। लेकिन उत्तराखण्ड में चाय का बाजार विकसित न होने, यातायात संसाधनों की कमी और चाय के बाजारीकरण के लिए कोलकत्ता बदंरगाह पर ही निर्भर रहने के कारण उत्तराखण्ड की चाय अन्तर्राष्टीय बाजार में अभी पूरी तरह अपनी जगह नहीं बना पायी। जिसका एक बडा कारण उत्तराखण्ड में चाय के किसानों को चाय की खेती के प्रति र्प्याप्त प्रोत्साहन की कमी माना जा सकता है। शायद यही कारण है कि कभी उत्तराखण्ड की रौनक माने जाने वाले चाय के 63 बागानों मे ंसे अब मात्र गिनती की बागान ही रह गये है और वह भी भारी कीमत की आर्थोडाक चाय तक सिमट जाना चिंता का विषय है। हालाकि आज भी कुमाउ क्षेत्र के रानीखेत, भीमताल, दूनागिरी, कौशानी, भवाली व बेरीनाग के जंगलों में चाय के पौधे खरपतवार के रूप् में खडे देखे जा सकते है। इस लिए यदि चाय की आधुनिक खेती के लिए उत्तराखण्ड के चाय किसानों को पुनः प्रात्साहित किया जाये और उन्हे यह विश्वास दिलाया जाये कि चाय लाभकारी फसल है तो किसानों का रूख चाय की ओर हो सकता है। जो उनकी जिंदगी बदल सकती है।
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